Sunday, March 26, 2023

मेनार की जमरा बीज

 मेनार की जमरा बीज


मेनारिया समाज के आदर्श व मुख्य गाव मेनार में खेली जाती है बारूद से होली, 500 साल से चली आ रही इस परंपरा को निभाने के लिए सभी मेनार वासी मेवाड़ी वेश भूषा में होते हैं। धोती-कुर्ता और कसुमल पाग पहने व  हाथ में तलवार बंदूक व हानियां लिए ओंकारेश्वर चौक में इकट्ठे होते हे। वहीं गरजती तोपों व आग ऊगलती बंदूकों की गर्जनाओं से  युद्ध जैसा माहौल हो जाता है।


यहां दोपहर से ही कार्यक्रम की शुरुआत हो जाती है. दोपहर में गांव के सभी लोग ओंकारेश्वर चबूतरे पर

एकत्र होते हैं। व पूरे साल का लेखा-जोखा देखते हैं। फिर बाहर से आए मेहमानो का स्वागत किया जाता है व गांव के सभी लोग अपने अपने घरों में गुड़ के पकोड़े ( भजिया ) पापड़ी बनाते हे व गांव में आये हुवे मेहमानो की मेहमान नवाजी होती है।


फिर शाम को लगभग 8 बजे के आस पास ओंकारेश्वर चबूतरे पर आने वाली पांच गलियां हैं, 

गांव में अलग-अलग क्षेत्र में रहने वाले युवाओ की टोलिया 

पांचो गलियों से आतिशबाजी करते हुए जलती हुई मशालो के साथ चौक तक आते हे करीब दो घंटे से जादा  तक आतिशबाजी होती है जिसमे बंदूकों से हवाई फायर किए जाते हे पठाके फोड़े जाते हे व गांव की पांचों गलियों में रखी गई तोपो से हवाई गोले दागे जाते हे बंदूकों-तोपों की बौछार की तेज आवाजों से इलाका गूंज उठता है.


फिर पांचों रास्तों से बड़े बुजुर्गों, युवा सभी एकत्रित हो जाते हैं फिर फेरात के इशारे पर युद्ध जेसी आतिशबाजी के लिए तैयार हो जाते हे  बंदूक से हवाई फायर करते हुए हाथ में चमकती तलवार लहराते हुए दौड़ते हुए चौक में एकत्रित होते हे और पांचों मशाले साथ में मिल जाती है यह नजारा देखने लायक होता हे युद्ध सा माहौल देखने मिलता हे फिर लाल रंग की गुलाल उड़ाई जाती है। व युद्ध जेसे दिखने वाले माहौल को शान्त किया जाता है।


माहौल शांत होने के बाद पांचों मशाले ढोल के साथ गांव के सभी पुरुष व महिलाए लोटे में जल लेकर एक साथ गांव के थंब चौक की ओर रवाना होते हे वहा घाटी पर मेनार गांव के इतिहास की कथा सुनाई जाती है। कथा होने के बाद सभी महिलाए जमरा खांडने जाती है।

फिर सभी ओंकारेश्वर चबूतरे पर आते हैं वहा पर जबरी गैर खेली जाती है। गैर तलवार और हानियां के साथ खेलते हे जिसमे गैर खेलते वक्त एक हाथ से तलवार गुमाते हे यह नजारा देखने में युद्ध में लड़ते हुए सैनिकों जैसा लगता हे। गैर करीब 2 से 3 गंटे तक खेली जाती है।

गैर खेलने के बाद तलवार व आग के गोटे गुमाए जाते हे


सबसे बड़ी बात यह है कि बारूद की इस होली में किसी प्रकार का पुलिस जाब्ता नहीं लगाया जाता हे ग्रामीणों में इतना अनुशासन है कि बारूद की होली खेलते हुए भी कोई झगड़ा या किसी प्रकार का कोई नुकसान नहीं होता है। हर्षोल्लास के साथ जामरा बीज का ये सबसे बड़ा त्योहार मनाया जाता है।








 कर्नल जेम्स टॉड ने भी मेनार का उल्लेख अपनी पुस्तक 'द एनालिसिस ऑफ राजस्थान' में मणिहार नाम के गांव के नाम से किया है.

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मेनार का इतिहास

 राजस्थान, उदयपुर मेवाड़ से करीब 45 किलोमीटर दूर मेनारिया समाज का मेनार गांव है 

  500 साल पहले मेवाड़ की पावन धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनियां (मुगल सेना की टुकड़ियां) थीं. इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी. इन छावनियों के आतंक से लोग दुखी हो उठे थे. 

जब मुगल सेना की टुकड़ियां मेनार गांव को लूटने पोहची तब उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी. समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया. इस कूटनीति के तहत युद्ध की योजना बनाई गई. व गांव के मुख्य ओंकारेश्वर चबूतरे पर मुगल सेना को बुलाया गया व ओंकारेश्वर चबूतरे पर ढोल बजाया गया.

ढोल की पहली थाप पर गांव के लोग अपने घरों से बाहर आकर अलग-अलग रास्तों से मुख्य चौक में पहुंचे व 

अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया. गांव के वीर मुगल छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े. रात भर भयंकर युद्ध चला. ओंकारेश्वर महाराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई मुगल छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलों के आतंक से बचाया गया. 

मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप तत्कालीन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी. व शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया, व 52 हजार बीघा जमीन दान में दी गई।

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Wednesday, March 15, 2023

मेनारिया

मेनारिया भारत में रहने वाली ब्राह्मण समुदाय की एक उप-जाति है। मेनारिया ब्राम्हण जाती को योद्धा ( क्षत्रिय ब्राम्हण ) भी कहा गया है मेनारिया शब्द का प्रथम प्रामाणिक साक्ष्य जिला चित्तोड़ के छोटी सादड़ी के भंवर माता मन्दिर के वि.सं. 547 ( सन् 490 ई.) के शिलालेख में मिलता है। 

मेनारिया ब्राह्मण मूलतः मेवाड़ की प्राचीनतम राजधानी नागदा नगर एकलिंगजी के निवासी है। दिल्ली के सुल्तान अल्तमश के विरुद्ध गोगुन्दा के निकट भूताला ग्राम में मेवाड़ के शासक जैत्रसिंह की सेना परास्त हुई थी। इसके पूर्व हुई नागदा की लड़ाई में जैनसिंह के प्रधान सेनापति एवं तत्कालीन मंत्री वीर धवला ने मुस्लिम सैन्य बल का वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया, जिसमें नागदा के ब्राह्मण भी मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद हुए। इस युद्ध ( सन् 1216 ई. नागदा-भूताला) के बाद नागदा से लोग अन्यत्र बसने लगे जो सालेरा, आहड़ गोगुन्दा, घासा में ये ब्राह्मण नागदा तथा जैसलमेर तथा बाद में पाली में बसने से पालीवाल एवं मेनार ग्राम में बसने से मेनारिया ब्राह्मण के नाम से विभक्त हो गए। 

मेंनारिया शब्द का प्रथम प्रामाणिक साक्ष्य जिला चित्तोड़ के छोटी सादड़ी के भंवर माता मन्दिर के वि.सं. 547 ( सन् 490 ई.) के शिलालेख में मिलता है। डॉ. दशरथ शर्मा ने "राजस्थान थ्रू दी एजेज" पुस्तक के प्रथम खण्ड पृ. 26 में लिखा है कि "मनुवानिया नामक ब्राह्मण वर्ग का मेवाड़ में शासन था।" संभवतः मनुवानिया लोग मध्यप्रदेश में उज्जैन धार से मेवाड़ में चित्तोड़ एवं नागदा तक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करते रहे होंगे। कालान्तर में गुहिल वंशज शासकों में बाप्पा रावल को आपात काल में नागदा में रहने वाले मेनारिया ब्राह्मणों ने संरक्षण प्रदान किया। इसी कारण तत्कालीन हारीत ऋषि 

(संभवतः हारीत मेनारिया ब्राह्मण ऋषि थे जो उस वक्त विख्यात रसायन चिकित्सक एवं चाणक्य की भांति राजनीति शास्त्र का ज्ञाता थे ) 

ने बाप्पा रावल को उसी प्रकार सहायता कर मेवाड़ का शासक बनाया जिस प्रकार चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को उसके पूर्वजों का राज्य नन्द शासकों से छीन कर दिलाया। हारीत ऋषि एवं बाप्पा रावल के संबंध का मेवाड़ के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में बड़ा महत्व है। मेवाड़ के शासकों ने तभी से हारीत वंशज ऋषियों को अपना गुरू एवं नागदा में रहने वाले ब्राह्मणों को समय समय पर सम्मानित कर उन्हें कई ग्रामों की भूमि दान में दी।

कर्नल जेम्स टॉड ने मेनारिया ब्राह्मणों का वर्णन अपनी पुस्तक "एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान" में लिखा है कि गुप्तकाल से कई वर्ष पूर्व राजा विक्रमादित्य (द्वितीय) की राजधानी धार और उज्जैन पर कभी मांधाता नामक राजा का शासन था। उसके साम्राज्य में चित्तौड़ मेनाल, नगरी एवं नागदा में मेनारिया लोगों का बोलबाला था। अब से वर्षों पूर्व इक्ष्वाकु वंश में युवनाश्व के पुत्र त्रसदस्यु मांधाता ने मेनारिया ब्राह्मणों को मेनार में जो खेरोदा के अन्तर्गत अमरपुरा ग्राम के पास स्थित है, 52 हजार बीघा भूमि दान में दी थी। हींता ढूंढिया (राणेरा महादेव) नामक स्थान के ब्राह्मणों का मालवा के प्रसिद्ध राजा मांधाता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था, जहा उसने एक अश्रमेध यज्ञ किया। उसी यज्ञ के समय मेनारिया ब्राह्मणों को मेनार तथा उसके आस पास भूमि दान में मिली। हजारों वर्षो से मेनारिया ब्राह्मण मेनार व उसके आस पास की विस्तृत भूमि के स्वामी थे। क्योंकि परम्परानुसार उस भूमि को मेवाड़ के शासकों ने भी मांधाता द्वारा प्रदत्त भूमि पर अधिकार मानकर समय समय पर ताम्रपत्र प्रदान कर मेनारियों को ही स्वामित्व सौंपा। अन्ततः माफ़ीदारी की यह भूमि संवत् 2016 में कांग्रेस राज में खालसा हो गई।

इस प्रकार पौराणिक परम्पराओं और एतिहासिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि कभी मेनार ग्राम मेनारियों का मूल निवास स्थान था, जिसे त्रेता युग में राजा मांधाता ने यह ग्राम और उसमें रहने वाले ब्राह्मणों को हजारों बीघा भूमि प्रदान की थी। मेवाड़ के मेनारिया ब्राह्मणों ने बाप्पा रावल, जैत्रसिंह, मधनसिंह, उदयसिंह, राणा प्रताप, 'राजसिंह एवं अन्तिम महाराणा के समय तक राजभक्ति तथा राष्ट्रभक्ति तथा सनातन मूल्यों की रक्षा में अहम भूमिका का निर्वाह किया।

कर्नल टॉड द्वारा प्राप्त सूचनाओं तथा उसके द्वारा लिखी गई मेनार की कहानी का यदि छोटीसादड़ी के भंवरमाता लेख से मिलान किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि त्रेता युग में मेवाड़-मालवा के मध्य कभी ब्राह्मण शासकों का राज्य रहा होगा, परशुराम और उसके वंशजों में राजा मांधाता नामा (मेकर) नामक स्थान पर अमेध यज्ञ कर वैदिक धर्म एवं संस्कृति को अण बनाया संभवत: ब्रह्मवंशीय शासकों के मुनपानिया क्षेत्र में रहा है। जिसको वास्तविक राजधानी जनमेजय के नागयज्ञ के बाद नागदा रही हो, युद्ध (गोगुन्दा के पास) के बाद नागदा के नष्ट होने के उपरान्त मेनारिया दूसरी बार अपने उसी प्राचीन मेनार में जा बसे हों। लेखक. जी. एल. मेनारिया की ऐसी मान्यता है कि मेनार ग्राम दो बार मेनारिया ब्राह्मणों द्वारा स्थायी रूप से आबाद किया जाना अनुसंधान का विषय है। मेवाड़ के मेनारियां गांवों को जनसंख्या और उन्हें राज्य द्वारा प्रदान भूमि का प्रामाणिक वर्णन प्रसिद्ध इतिहासकार कविराज श्यामलदास के द्वारा लिखित सामग्री "श्यामलदास कलेक्शन" राजस्थान राज्य पुस्तकालय बीकानेर में उपलब्ध है जो मेनारिया ब्राह्मण समाज की कहानी की पुष्टि करता है।

समाज के विस्तार के साथ साथ अपनी स्थानीय पहचान लिये इसका विभिन्न प्रकार से उपसमूहों के रूप में विभाजन समय समय पर होता रहा एवं इस प्रकार बने उपसमूहों को चोखला, न्यात, खेड़ा आदि नामों से जाना जाता रहा है। मेनारिया एवं पालीवाल ब्राह्मण समाजों में बावन खेड़ा, चंवालीस खेड़ा, चौबीस खेड़ा, सौलह खेड़ा आदि नामों के उपसमूह विध्यमान है। यध्यपि लगभग समान आचार विचार, रीति- रिवाज खान पान, व्यवसाय, परम्पराओं वाले समाजों का इन संख्या वाचक नाम के उपसमूहों में विभाजन कब, क्यों और कैसे हुआ, इसका प्रामाणिक इतिहास अभी तक खोज का विषय है, तथापि प्रारम्भिक अवस्था में जितने गांवों में जिस समाज के परिवार रहते बसते थे, उनकी संख्या के अनुसार उस उपसमूह का नामकरण किया गया।

जनश्रुति के आधार पर यह विभाजन तत्कालीन समय में समाज के व्यापक क्षेत्र में फैलाव (मारवाड़-मेवाड़-मालवा) तथा आवागमन के साधनों की कमी के कारण सामाजिक मेल-मिलाप की दिक्कतों एवं सामाजिक आयोजन यथा- विवाह भोज, मृत्युभोज आदि को नियंत्रित एवं सीमित करने आदि कारणों से समाज के प्रबुद्ध महानुभावों की सोच से हुआ था। इस हेतु प्रथमतः यह तय हुआ कि एक ही दिन व एक ही समय पर समाज के 5-6 बड़े गांवों में धार्मिक सामाजिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाय इन अनुष्ठानों में समाज के सभी गांवों के प्रतिनिधि सम्मिलित हों, साथ ही यह भी तय हुआ कि एक गांव के प्रतिनिधि अपनी स्वेच्छा एवं सुविधा से किसी भी एक स्थान के अनुष्ठान में ही सम्मिलित हो। अनुष्ठान आयोजित गांव में जिन गांवों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए उन गांवों का अलग अलग चोखला (बैठक) बन गई तथा जितने गाँवों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए, उनकी संख्या के आधार पर उतने खेड़ा का समाज का नामकरण कर दिया गया।


बावन खेड़ों के प्रतिनिधि मेनार गांव में एकत्रित हुए थे इसलिये स्थानवाचक नामक मेनार गांव से मेनारिया ब्राह्मण समाज "बावनखेड़ा" उपसमूह का पर्यायवाची बना। चंवालोस खेड़ा, चौबीस खेड़ा, सौलह खेड़ा, आदि उपसमूह पालीवाल समाज के संबोधन है। भौगोलिक दृष्टि से मेनारिया समाज 'बावनखेड़ा' का विस्तार एवं सघनता गिर्वा, वल्लभनगर, उदयपुर, गोगुंदा, चितौड़गढ़ , कपासन, निम्बाहेड़ा, बड़ीसादड़ी, छोटीसादड़ी, डूंगला, नीमच, मन्दसौर, राजसमन्द, नाथद्वारा, गोगुन्दा, आदि क्षेत्र में है।

कुछ स्थानों पर 'खेड़ा' शब्द के बजाय 'श्रेणी' यथा बावन श्रेणी, चंवालीस श्रेणी, चौबीस श्रेणी आदि का उपयोग किया जाने लगा है। 

 महाराणा अमरसिंह तब राजा थे। उथला किले पर मुगलों के हमले के बाद मेनार के ग्रामीणों ने इस घटना से प्रेरणा लेकर हथियार उठाये और मुगलों को हरा दिया। यह दिन जमरा बीज (होली दहन के बाद का तीसरा दिन)  पड़ता है, जो आज तक स्थानीय लोगों द्वारा अपने पूर्वजों की वीरता और वीरता को संजोने के लिए मनाया जाता है। ओंकारेश्वर चौक पर ग्रामीणों का जमावड़ा होता है और आतिशबाजी और बंदूकें चलाई जाती हैं, मिठाइयां बांटी जाती हैं। 

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मेनार की जमरा बीज

 मेनार की जमरा बीज मेनारिया समाज के आदर्श व मुख्य गाव मेनार में खेली जाती है बारूद से होली, 500 साल से चली आ रही इस परंपरा को निभाने के लिए ...