राजस्थान, उदयपुर मेवाड़ से करीब 45 किलोमीटर दूर मेनारिया समाज का मेनार गांव है
500 साल पहले मेवाड़ की पावन धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनियां (मुगल सेना की टुकड़ियां) थीं. इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी. इन छावनियों के आतंक से लोग दुखी हो उठे थे.
जब मुगल सेना की टुकड़ियां मेनार गांव को लूटने पोहची तब उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी. समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया. इस कूटनीति के तहत युद्ध की योजना बनाई गई. व गांव के मुख्य ओंकारेश्वर चबूतरे पर मुगल सेना को बुलाया गया व ओंकारेश्वर चबूतरे पर ढोल बजाया गया.
ढोल की पहली थाप पर गांव के लोग अपने घरों से बाहर आकर अलग-अलग रास्तों से मुख्य चौक में पहुंचे व
अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया. गांव के वीर मुगल छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े. रात भर भयंकर युद्ध चला. ओंकारेश्वर महाराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई मुगल छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलों के आतंक से बचाया गया.
मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप तत्कालीन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी. व शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया, व 52 हजार बीघा जमीन दान में दी गई।
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